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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मिस पद्मा मुंशी प्रेम चंद

मगर जैसे राजनीति के क्षेत्र में अधिकार दुरुपयोग की ओर जाता हैं, उसी तरह प्रेम के क्षेत्र में भी वह दुरुपयोग की ओर ही जाता हैं और जो कमजोर है, उसे तावान देना पड़ता हैं। आत्माभिमानी पद्मा अब प्रसाद की लौड़ी थी और प्रसाद उसकी दुर्बलता का फायदा उठाने से क्यों चूकता? उसने कील की पतली नोक चुभा ली थी और बड़ी कुशलता से उत्तरोत्तर उसे अन्दर ठोंकता जाता था। यहाँ तक कि उसने रात को देर से आना शुरू किया। पद्मा को अपने साथ न ले जाता, उससे बहाना करता कि मेरे सिर में दर्द हैं औऱ जब पद्मा घुमने जाती तो अपनी कार निकाल लेता और उड़ जाता। दो साल गुजर गये और पद्मा को गर्भ था। वह स्थूल भी हो चली थी। उसके रूप में पहले की-सी नवीनता और मादकता न रह गई थी। वह घर की मुर्गी थी, साग बराबर।
एक दिन इसी तरह पद्मा लौटकर आयी, तो प्रसाद गायब थे। वह झुँझला उठी। इधर कई दिन से वह प्रसाद का रंग बदला हुआ देख रही थी। आज उसने कुछ स्पष्ट बाते कहने का साहस बटोरा। दस बज गये, ग्यारह बज गये, बारह बज गये, पद्मा उसके इन्तजार में बैठी थी। भोजन ठंड़ा हो गया, नौकर-चाकर सो गये। वह बार-बार उठती, फाटक पर जाकर नजर दौड़ाती। बाहर-एक बजे के करीब प्रसाद घर आये।
पद्मा ने साहस बटोरा था; पर प्रसाद के सामने जाते ही उसे इतनी कमजोरी मालूम हुई। फिर भी उसने जरा कड़े स्वर में पूछा- आज इतनी रात तक कहाँ थे? कुछ खबर हैं, कितनी रात हैं?
प्रसाद को वह इस वक़्त असुन्दरता की मूर्ति-सी लगी। वह एक विद्यालय की छात्रा के साथ सिनेमा देखने गया था। बोला- तुमको आराम से सो जाना चाहिए था। तुम जिस दशा में हो, उसमें तुम्हें, जहाँ तक हो सके, आराम से रहना चाहिए।
पद्मा का साहस कुछ प्रबल हुआ- तुमसे पूछती हूँ, उसका जवाब दो। मुझे जहन्नुम में भेजो!
'तो तुम भी मुझे जहन्नुम में जाने दो।'
'तुम मेरे साथ दगा कर रहे हो, यह मैं साफ देख रही हूँ।'
'तुम्हारी आँखों की ज्योति कुछ बढ़ गयी होगी!'
'मैं इधर कई दिनो से तुम्हारा मिजाज कुछ बदला हुआ देख रही हूँ।'
'मैं तुम्हारे साथ अपने को बेचा नही हैं। अगर तुम्हारा जी मुझसे भर गया हो, तो मैं आज जाने को तैयार हूँ।'
'तुम जाने की धमकी क्या देते हो! यहाँ तुमने आकर कोई बड़ा त्याग नहीं किया हैं।'
'मैने त्याग नहीं किया हैं? तुम यह कहने का साहस कर रही हो। मैं देखता हूँ, तुम्हारा मिजाज़ बिगड़ रहा हैं। तुम समझती हो, मैने इसे अपंग कर दिया । मगर मैं इसी वक़्त तुम्हें ठोकर मारने को तैयार हूँ, इसी वक़्त, इसी वक़्त!'
पद्मा का साहस जैसे बुझ गया था। प्रसाद अपना ट्रँक सँभाल रहा था। पद्मा ने दीन-भाव से कहा- मैने तो ऐसी कोई बात नहीं कहीं, जो तुम इतना बिगड़ उठे। मैं तो केवल तुमसे पूछ रहीं थी, कहाँ थे। क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं देना चाहते? मैं कभी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती और तुम मुझे बात-बात पर डाँटते रहते हो। तुम्हें मुझ पर जरा भी दया नहीं आती। मुझे तुमसे कुछ भी तो सहानुभूति मिलनी चाहिए। मैं तुम्हारे लिए क्या कुछ करने को तैयार नहीं हूँ? और आज जो मेरी दशा हो गयी हैं, तो तुम मुझसे आँखे फेर लेते हो...
उसका कंठ रुँध गया और मेज पर सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। प्रसाद ने पूरी विजय पायी।

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